पीड़ा पंछी की



मां ने मुझको जन्म दिया तब मैं था बिल्कुल छोटा सा,
नन्हे नन्हे हांथ - पांव थे, मां की गोंद में सोता था।

जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, तब मां ने मुझे सिखाया उड़ना।
संस्कार दुनियां के सारे, और किसी से नहीं झगड़ना।

छोड़ के धरती मां की गोदी, उड़ जाता आकाश में।
कितना सुखमय था वो दिन जब मां होती थी पास में।

आज यहां पिंजड़े में आकर याद आता है वो बचपन।
छूट गया मां का वो आंचल, धरती मां का वो आंगन।

रख दो सोने के पिंजड़े में, दे दो लाखों सुख - सुविधा।
खुला आसमां, वो हरियाली, याद आएंगें हमें सदा।

स्वतंत्र भारत में रहकर भी, हूं पिंजड़े में कैद पड़ा, 
हांथ - पांव में नहीं बेड़ियां, फिर भी हूं लाचार खड़ा।

काश मुझे लौटा दे कोई, वो खुशियां और वो बचपन,
मां के संग आकाश में उड़ना, धरती मां का वो आंगन।

कर लो चाहे कैद कहीं पर, कर सकते हो मेरा तन,
स्वतंत्र भारत में रहता हूं, स्वतंत्र है यह मेरा मन, 
स्वतंत्र है यह मेरा मन, स्वतंत्र है यह मेरा मन।







मंगला प्रसाद तिवारी
(कवि/लेखक/स्वतंत्र पत्रकार)
इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश

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